यह जीवन के सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्रों में से एक है, क्योंकि यह मूल जीवन-ऊर्जा से संबंधित है। कामवासना...यह शब्द ही अत्यंत निंदित हो गया है। क्योंकि समस्त धर्म उन सब चीजों के दुश्मन हैं, जिनसे मनुष्य आनंदित हो सकता है, इसलिए काम इतना निंदित किया गया है। उनका न्यस्त स्वार्थ इसमें था कि लोग दुखी रहें, उन्हें किसी तरह की शांति, थोड़ी सी भी सांत्वना, और इस रूखे-सूखे मरुस्थल में क्षण भर को भी मरूद्यान की हरियाली पाने की संभावना शेष न रहे। धर्मों के लिए यह परम आवश्यक था कि मनुष्य के सुखी होने की पूरी संभावना नष्ट कर दी जाए।
यह उनके लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों था? यह महत्वपूर्ण था क्योंकि वे तुम्हें, तुम्हारे मन को किसी और दिशा में मोड़ना चाहते थे-परलोक की ओर। यदि तुम सच में ही यहां आनंदित हो-इसी लोक में, तो भला तुम क्यों किसी परलोक की चिंता करोगे? परलोक के अस्तित्व के लिए तुम्हारा दुखी होना अत्यंत आवश्यक है। उसका स्वयं अपने आप में कोई अस्तित्व नहीं है, उसका अस्तित्व है तुम्हारे दुख में, तुम्हारी पीड़ा में, तुम्हारे विषाद में।
दुनिया के सारे धर्म तुम्हारे अहित करते रहे हैं। वे ईश्वर के नाम पर, सुंदर और अच्छे शब्दों की आड़ में तुममें और अधिक पीड़ा और अधिक संताप, और अधिक घृणा, और अधिक क"ोध, और अधिक घाव पैदा करते रहे हैं। वे प्रेम की बातचीत करते हैं, मगर तुम्हारे प्रेमपूर्ण हो सकने की सारी संभावनाओं को मिटा देते हैं।
मैं काम का शत्रु नहीं हूं। मेरी दृष्टि में काम उतना ही पवित्र है, जितना जीवन में शेष सब पवित्र है। असल में न कुछ पवित्र है, न कुछ अपवित्र है; जीवन एक है-सब विभाजन झूठे हैं, और काम जीवन का केंद्र बिंदु है।
इसलिए तुम्हें समझना पड़ेगा कि सदियों-सदियों से क्या होता आ रहा है। जैसे ही तुम काम को दबाते हो, तुम्हारी ऊर्जा स्वयं को अभिव्यक्त करने के लिए नये-नये मार्ग खोजना प्रारंभ कर देती है। ऊर्जा स्थिर नहीं रह सकती। जीवन के आधारभूत नियमों में से एक है कि ऊर्जा सदैव गत्यात्मक होती है, गतिशीलता का नाम ही ऊर्जा है। वह रुक नहीं सकती, ठहर नहीं सकती। यदि उसके साथ जबरदस्ती की गई, एक द्वार बंद किया गया, तो वह दूसरे द्वारों को खोल लेगी, लेकिन उसे बांधकर नहीं रखा जा सकता। यदि ऊर्जा का स्वाभाविक प्रवाह अवरुद्ध किया गया, तो वह किसी अप्राकृतिक मार्ग से बहने लगेगी। यही कारण है कि जिन समाजों ने काम का दमन किया, वे अधिक संपन्न और समृद्ध हो गए। जब तुम काम का दमन करते हो, तो तुम्हें अपने प्रेम-पात्र को बदलना होगा। अब स्त्री से प्रेम करना तो खतरनाक है, वह तो नरक का द्वार है। चूंकि सारे शास्त्र पुरुषों ने लिखे हैं, इसलिए सिर्फ स्त्री ही नरक का मार्ग है। पुरुषों के बारे में क्या खयाल है?
मैं हिंदुओं, मुसलमानों, ईसाइयों से कहता रहा हूं कि अगर स्त्री नरक का मार्ग है, तब तो फिर केवल पुरुष ही नरक जा सकते हैं, स्त्री तो जा ही नहीं सकती। मार्ग तो सदा अपनी जगह रहता है, वह तो कहीं आवागमन नहीं करता। लोग ही उस पर आवागमन करते हैं। यूं कहने को तो हम कहते हैं कि यह रास्ता फलां जगह जाता है, लेकिन इसमें भाषा की भूल है। रास्ता तो कहीं आता-जाता नहीं, अपनी जगह आराम से पड़ा रहता है, लोग ही उस पर आते-जाते हैं। यदि स्त्रियां नरक का मार्ग हैं, तब तो निश्चित ही नरक में केवल पुरुष ही पुरुष भरे होंगे। नरक “सिर्फ पुरुषों का क्लब” होगा।
स्त्री नरक का मार्ग नहीं है। लेकिन एक बार तुम्हारे दिमाग में यह गलत संस्कार बैठ जाए, तो तुम किसी और वस्तु में स्त्री को प्रक्षेपित करने लगोगे; फिर तुम्हें कोई और प्रेम-पात्र चाहिए। धन तुम्हारा प्रेम-पात्र बन सकता है। लोग पागलों की तरह धन-दौलत से चिपके हैं, जोरों से पकड़े हैं, क्यों? इतना लोभ और लालच क्यों है? क्योंकि दौलत ही उनकी प्रेमिका बन गई। उन्होंने अपनी सारी जीवन ऊर्जा धन की ओर मोड़ ली।
अब यदि कोई उनसे धन त्यागने को कहे, तो वे बड़ी मुसीबत में पड़ जाएंगे। फिर राजनीति से उनका प्रेम-संबंध जुड़ जाएगा। राजनीति में सीढ़ी दर सीढ़ी ऊपर चढ़ते जाना ही उनका एकमात्र लक्ष्य हो जाएगा। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति पद की ओर, राजनीतिज्ञ ठीक उसी लालसा से देखता है, जैसे कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका की ओर देखता है। यह विकृति है।
कोई व्यक्ति किन्हीं और दिशाओं में जा सकता है, जैसे शिक्षा; तब पुस्तकें उसकी प्रेम की वस्तुएं हो जाती हैं। कोई आदमी धार्मिक बन सकता है, तब परमात्मा उसका प्रेम-पात्र बन जाता है...तुम अपने प्रेम को किसी भी काल्पनिक चीज पर प्रक्षेपित कर सकते हो, लेकिन स्मरण रहे, उससे तुम्हें परितृप्ति नहीं मिल सकती।
ओशो,
फ्रॉम डार्कनेस टु लाइट
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Oct 21, 2010
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