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जीवन की क्रांति की शुरुआत इस बात से होती है कि एक आदमी अपनी बागडोर अपने हाथ में ले लेता है, कहता है, बुरा— भला जैसा हूं, मैं जिम्मेवार हूं।
जरा सोचो तो, एक बार तुम्हें यह खयाल आ जाए कि मैं जिम्मेवार हूं, यह तीर तुम्हारे प्राणों में धंस जाए कि मैं जिम्मेवार हूं, यह तुम्हें बात भुलाए न भूले, यह तुम्हारे सोते —जागते चारों तरफ तुम्हें घेरे रहे, यह तुम्हारी हवा में, तुम्हारे वातावरण में समा जाए; यह तुम्हारे मन में जलता हुआ दीया बन जाए कि मैं जिम्मेवार हूं इतनी आसानी से पाप कर सकोगे जितनी आसानी से अब तक किया? मैं जिम्मेवार हूं।
फूंक—फूंककर पैर रखने लगोगे। कहते हैं, दूध का जला छाछ भी फूंक—फूंककर पीने लगता है।
अगर एक बार तुम्हें स्मरण में आ जाए कि पाप मैंने किए, कौन मुझे छुटकारा देगा? मैं किसकी राह देख रहा हूं कोई भी नहीं आएगा। कोई न कभी आया है, कोई न कभी आएगा। बंद करो यह द्वार, प्रतीक्षा बंद करो। तुम ही हो। तुम्हीं आए, तुम्हीं गए। कोई और नहीं आया है। तुम्हीं ने किया, तुम्हीं ने अनकिया भी। तुम्हीं ने अच्छा भी, तुम्हीं ने बुरा भी। लेकिन जिम्मेवारी आत्यंतिक है। अल्टीमेट है।
और किन्हीं तीर्थों की आड में पाप मत करो।
*एस्स धम्मो सनंतनो*
*🌹ओशो प्रेम... ✍🏻♥ 19124*
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