नए दशक की सीरिज में आज मुझे दुनिया की संभावनाओं पर लिखना था लेकिन कल नए दशक की भारत संभावनाओं पर लिखते हुए मैं ‘निष्काम कर्म’ शब्द पर ठिठका। इसके मायने में भारत की दशा पर सोचने लगा।एक निष्कर्ष बनता है। पर आगे बढ़ें उससे पहले जाने कि‘निष्काम कर्म’श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को सुनाया यह जीवन सूत्र है- अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः। स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः। मतलब कर्म के फल का आश्रय न लेकर जो कर्म करता है, वह संन्यासी भी है और योगी भी। वह नहीं जो अग्निहीन है, न वह जो अक्रिय है। मतलब निष्काम कर्म से सधता है जीवन और जीवन जीने का शिखर।
ऐसा तब संभव है जब व्यक्ति बंधा हुआ न हो। व्यक्ति और देश की सामूहिक बुद्धि सत्य, ज्ञान की खोज में निष्काम कर्म करने की मुक्त स्थितियां लिए हुए हो। बंधा होना, गुलामया स्थितियों में कंडीशंड होना मतलब चिंता, भय, लोभ, चापलूसी, कामना, वासना के भावों में व्यवहार का, कर्म का संचालित होना न हो। मतलब फल-परिणाम सोचते हुए, उसमें बंध कर काम (सकाम मतलब निष्काम कर्मका विलोम) नहीं करना।
गीता के अनुसार निष्काम भाव काम हुआ तो अल्प कर्म भी ज्ञान का, सिद्धि का, मुक्ति का एवरेस्ट हो सकता है। न्यूटन बगीचे में बैठा ब्रह्राण्ड की माया पर निष्काम भाव विचार कर रहा था तभी पेड़ से सेब गिरा उसकी बुद्धि को सिद्धि हुई कि यह तो गुरूत्वाकर्षण सत्य। तो वह उसके निष्काम कर्म का फल था। सो, जानें इस हकीकत को कि इंसान का आधुनिक विकास, ज्ञान-विज्ञान का विस्फोट, मंगल ग्रह की ओर उड़ान आदि सब वैज्ञानिकों-दार्शनिकों के निष्काम कर्म के भाव में सत्य खोजते जाने की बुद्धि साधना से हुआ है।
सवाल है ऐसा आजाद भारत में क्यों नहीं हुआ? इसलिए कि 15 अगस्त 1947 की आधी रात के भ्रूण का वक्त हो या घर-परिवार में बच्चे के जन्म का भ्रूण बना नहीं कि भारत के हम लोग यह तय कर देते हैं कि हमें ब्रिटेन की तरह बनना है या बच्चे को डॉक्टर बनाना है, इंजीनियर बनाना है!सो, भारत 15 अगस्त 1947 की रात से बिना निष्काम कर्म के है। वह लक्ष्य-उद्देश्यों मे बंधा हुआ है वैसे ही जैसे भारत के हर घर का हर सदस्य, हर बच्चा, हर नौजवान उद्देश्य-मकसद, चिंता, लोभ, भूख वश सकाम कर्म की नियति लिए हुए है।
इस बात को मोटे अंदाज में पहले राष्ट्र-राज्य के परिप्रेक्ष्य में अमेरिका बनाम भारत के उदाहरण से समझा जाए। 1777 में ब्रिटेन के 13 उपनिवेशों के नेताओं ने ब्रितानी साम्राज्य से मुक्ति का ऐलान करके अमेरिका का गठन किया। ऐसा करने वाले अमेरिका के जन्मदाताओं ने अपना संविधान ब्रितानी मॉडल, उसकी संवैधानिकता याकि वेस्टमिनिस्टर मॉडल अनुसार नहीं बनाया, बल्कि यूरोपीय उदारवाद, व्यक्ति के निज अधिकारों पर बनाया। हालांकि उस वक्त राष्ट्र-राज्य के हित में राजशाही को श्रेष्ठतम माना जाता था। मगर जीवन और जीवन की खुशियों को पाने की आजादी के ब्रह्म वाक्य में अमेरिकी संविधान रचने वाले फाउंडिंग फादर्स याकि वाशिंगटन, एडम, जेफरसन और मेडिसन (ये सभी एक-एक कर राष्ट्रपति बने) ने सन् 1777 में सरकार, व्यवस्था के चेक-बैलेंस में वे तमाम सावधानियां बरतीं, जिससे व्यक्ति को निष्काम कर्म की पूर्ण आजादी प्राप्त हो। मतलब न सरकार माई बाप और न नागरिक की प्रवृत्तियों में गुलामी, भूख, बोझ को बनवाने वाले तत्व!
अब सोचें कि भारत में 15 अगस्त 1947 की आधी रात के सपने से लेकर संविधान निर्माण में नागरिक, व्यक्ति की नियति को कैसे बांधा गया? उसी ब्रितानी मॉडल में, जिससे आजाद होना था! अमेरिका के फाउंडिंग फादर्स ने ब्रितानी महारानी से विद्रोह कर आजादी प्राप्त करने के बाद ब्रितानी व्यवस्थाको नहीं अपनाया, बल्कि सुकरात, ग्रीक-रोमन दार्शनिकों, यूरोपीय पुनर्जागरण के विचारोंव आधुनिक विचारकों मसलन जॉन लॉक आदि को पढ़-समझ तय किया कि आजादी में सरकार नहीं, बल्कि नागरिक माईबाप है। उन्होंने समझा कि सरकार और सत्ता से राष्ट्र-राज्य में कैंसर बनता है। सरकार ही भ्रष्टाचार का प्रमुखतम सोर्स होती है जो अनुकंपा, भेदभाव, गुटबाजी, धर्म (चर्च) उपयोग जैसे जरियों से करप्शन बनवाती है। इसलिए सरकार और सत्ता नहीं, बल्कि व्यक्ति की, उसके जीवन, उसकी बुद्धि, उसकी अभिव्यक्ति की आजादी को, गरिमा, सुरक्षा को अधिकारों में सर्वोच्चता मिले ताकि वह निष्काम भाव कर्म कर सके। कहना अनावश्यक है कि व्यक्ति का अपनी धुन में, अपनी आजादी में निष्काम कर्म ही अमेरिका को सन् 1777 से अब तक के ढाई सौ सालों में मानव सभ्यता का सिरमौर पुंज बनाए हुए है! क्या नहीं?
ठीक विपरीत भारत केनिर्माताओं, भारत के फाउंडिंग फादर्स, गांधी-नेहरू-आंबेडकर ने क्या किया? गुलामी की व्यवस्था को, ब्रितानी व्यवस्था को रोल मॉडल बनाया। ब्रितानी प्रधानमंत्री चर्चिल कहा करते थे कि भारत के लोगों में सलीका कहां है जो वे आजादी के हकदार हैं। भारत के लोग अपने आप राज नहीं कर सकते। सोचें, तभी क्या भारत के संविधान निर्माताओं ने माना नहीं कि भारत में लोग बिना माईबाप सरकार के जी नहीं सकते हैं। न भारत के लोगों की भाषा में गवर्नेंस हो सकती है और न अंग्रेजों के बनाए आईपीसी जैसे कानूनों, लाठियों के बिना नागरिक सभ्य, विधि सम्मत जीवन जी पाएंगे।
हां, अमेरिकी निर्माताओं ने ब्रितानी राजशाही, व्यवस्था से मुक्त हो ग्रीक-रोमन-यूरोपीय पुनर्जागरण, ईसाई सभ्यता-संस्कृति-दर्शन से प्रेरणा में अपना संविधान, व्यवस्था, देश रचा,तो दूसरी ओर भारत के संविधान निर्माताओं के लिए भारत का अध्यात्म-दर्शन (गीता, उपनिषद्, आधुनिक विचारक) त्याज्य था, सांप्रदायिक धर्म रूप था और उनमें दुनिया के अनुभवों में अपनी नई मौलिक रचना का साहस भी नहीं था।
इसका नतीजा क्या हुआ?भारत के हम लोग 15 अगस्त 1947 से ऐसे सकाम कर्म में बंधे हुए हैं कि हमें ऐसा होना है, हमें वैसा होना है! हमें ब्रिटेन बनना है। हमें सोवियत संघ बनना है। हमें मिक्स आर्थिकी वाला बनना है। हमें निर्गुट रहना है। यह फलां पंचवर्षीय याएकवर्षीय योजना है और इसके फलां फलां लक्ष्य है। फलां आरक्षण है। फलां धर्मादा-खैरात है। इतने वैज्ञानिक बनने हैं, इतने डॉक्टर- इंजीनियर होने हैं। एक वक्त में कार, स्कूटर, फ्रीज आदि का निर्माण भी सरकार के द्वारा तय लाइसेंस-कोटे से हुआ करता था तो 21वीं सदी में भी आज माईबाप सरकार लोगों को यह ज्ञान देती मिलती है कि शौचालय बनाओ, साफ-सफाई रखो!
आप अमेरिका के इतिहास में खोजें तो नहीं पाएंगे कि वहां कभी शौचालय बनाओ मिशन चला या अश्वेत लोगों का उद्धार आरक्षण से सोचा गया! दुनिया की हर कौम ने, हर राष्ट्र ने, उस राष्ट्र के लोगों ने अपने को अपने आप गढ़ा। रूस, चीन, जापान, जर्मनी के बीसवीं सदी के उदाहरण एक्स्ट्रीम और घोर विपरीत व्यवस्थाओं वाले हैं लेकिन इन सबमें कॉमन रेखांकित बात अपनी जमीन, अपनी भाषा, संस्कृति, मिजाज अनुसार फाउंडिंग फादर्स के मौलिक प्रयोगों और व्यवस्थाओं की है। मतलब उन्होंने जो किया निष्काम कर्म में किया न कि नकल, बंधन कीसकाम बेड़ियों में।
मामला उलझ रहा है। मैं भटक रहा हूं। इसलिए जरा व्यक्ति के स्तर पर विचार हो। मैं और आप या आजाद भारत की तीन पीढ़ियों में उत्तरोत्तर किस बात की प्रवृत्ति बनी? जैसे 1947 से सरकार ने बतौर माईबाप भारत की आबादी को हांका वैसे घर-परिवार में भी बच्चों पर माईबाप बनने की प्रवृत्ति बनी और गहराती गई। चाहे तो आप विकास कह सकते हैं मगर अपना मानना है कि अंग्रेजों के वक्त में सरकार और घर-परिवार में निष्काम कर्म वाली मुक्तता, आजादी थी। उसके चलते 1947 से पहले भारत में विविध क्षेत्रों में हस्तियों, धर्म-समाज सुधारकों, शिक्षाविदों, विचारवानों, दार्शनिकों, वैज्ञानिकों, समाजशास्त्रियों, साहित्यकारों का रेला बना तो घर-परिवारों में भी यह हुआ करता था जो लड़के-लड़कियां भी अपनी-अपनी पसंद अनुसार बुद्धि-शिक्षा का नैसर्गिक (निष्काम) रूझान लिए हुए होते थे।
अब क्या है? गर्भ में ही माता-पिता तय कर देते हैं कि बच्चे को डॉक्टर बनना है, इंजीनियर बनना है या आईएएस-आईपीएस जैसी सरकारी नौकरियों के लिए तैयार करना है। सरकार द्वारा निर्देशित है कि आठवीं तक परीक्षा जरूरी नहीं और पढ़ाना लक्ष्य है तो लड़के-लड़कियों का दाखिला कराते हुए बिना परीक्षा के उन्हें आठवीं-दसवीं तक पहुंचा दो और आठवीं-दसवीं तक पहुंचे नहीं कि कोचिंग चालू! मतलब सवा सौ करोड़ लोगों की आबादी में बचपन से ले कर नौजवानी की पूरी जमात एक लक्ष्य विशेष की शिक्षा के सकाम कर्म में बंधी हुई! सचमुच भयावह स्थिति। आजाद भारत के सेकुलर शिक्षा विचारक हों या हिंदू शिक्षा विचारक, सभी ने भारत की स्कूली-कॉलेज-विश्वविद्यालय शिक्षा में बुद्धि को, माइंड को इन कंडीशनों में बांधा है कि तुम्हें सेकुलर बनना है या हिंदू बनना है या फलां-फलां डिग्री, करियर पाने का सकाम कर्म करना है!
ऐसा अमेरिका या उन देशों में नहीं होता है, जहां की शिक्षा से सच्चे वैज्ञानिक, माइक्रोसॉफ्ट-गूगल-फेसबुक बनाने वाले आईटी विचारक, समाजशास्त्री, दार्शनिक, चिकित्सा-रसायन-भौतिकी, आर्थिकी, साहित्य के नोबेल पुरस्कार विजेता निकलते हैं। भारत में हम आईआईटी पर इतराते हैं लेकिन ये संस्थाएं अमेरिका की एमआईटी की छटांग भी नहीं हैं और एमआईटी या हार्वर्ड की बुद्धि से जहां निर्माण होता है प्रोजेक्ट बनता-फलता है वहीं उस निर्माण में अपनी आईआईटी-आईआईएम के डिग्रीधारी बतौर कर्मी, मैनेजर, कुली, सीईओ के रूप में जैसी नौकरियां करते हैं वह उनकी और हमारी शिक्षा के इस फर्क का प्रमाण है कि वे निष्काम शिक्षा वाले हैं और हम सकाम शिक्षा वाले!
मतलब वे न्यूटन की धुन में होते हैं और हम न्यूटन की खोज के सिद्धांत का रट्टा लगा कर स्किल विशेष से समस्या समाधना करने वाले। वहां शिक्षा निष्काम कर्म साधना, बुद्धि फैलाव की स्वच्छंदता है। मतलब सत्य, ज्ञान जानने की साधना का वह योगी हठ, जिससे दिमाग, बुद्धि निरंतर सोचने के लिए उत्प्रेरित रहे।सवाल करने का अनवरत कौतुक रहे।बच्चे को, छात्र को सोचने वाला बनाना ही बिल गेट्स, सर्गेइ ब्रिन,लैरी पेज याकि माइक्रोसाफ्ट, गूगल निर्माताओं, संस्थापकों के जन्म का आधार है, जहां फिर अपनी सकाम शिक्षा से निकले सुंदर पिचाई व सत्य नडेला आदि की नौकरियां हैं।
न्यूटन और बिल गेट्स और अमेरिका सचमुच निष्काम कर्म की प्रवृत्तियों में बने, बढ़े, निखरे और शिखर के मौलिक प्रमाण है जबकि भारत का प्रमाण2020 का वह मुकाम है, जिसमें भूख, वासना, लालसा, गुलामी, नौकरी की सकाम बेड़ियों में जीना ही कर्म है, नियति है।
ऐसा तब संभव है जब व्यक्ति बंधा हुआ न हो। व्यक्ति और देश की सामूहिक बुद्धि सत्य, ज्ञान की खोज में निष्काम कर्म करने की मुक्त स्थितियां लिए हुए हो। बंधा होना, गुलामया स्थितियों में कंडीशंड होना मतलब चिंता, भय, लोभ, चापलूसी, कामना, वासना के भावों में व्यवहार का, कर्म का संचालित होना न हो। मतलब फल-परिणाम सोचते हुए, उसमें बंध कर काम (सकाम मतलब निष्काम कर्मका विलोम) नहीं करना।
गीता के अनुसार निष्काम भाव काम हुआ तो अल्प कर्म भी ज्ञान का, सिद्धि का, मुक्ति का एवरेस्ट हो सकता है। न्यूटन बगीचे में बैठा ब्रह्राण्ड की माया पर निष्काम भाव विचार कर रहा था तभी पेड़ से सेब गिरा उसकी बुद्धि को सिद्धि हुई कि यह तो गुरूत्वाकर्षण सत्य। तो वह उसके निष्काम कर्म का फल था। सो, जानें इस हकीकत को कि इंसान का आधुनिक विकास, ज्ञान-विज्ञान का विस्फोट, मंगल ग्रह की ओर उड़ान आदि सब वैज्ञानिकों-दार्शनिकों के निष्काम कर्म के भाव में सत्य खोजते जाने की बुद्धि साधना से हुआ है।
सवाल है ऐसा आजाद भारत में क्यों नहीं हुआ? इसलिए कि 15 अगस्त 1947 की आधी रात के भ्रूण का वक्त हो या घर-परिवार में बच्चे के जन्म का भ्रूण बना नहीं कि भारत के हम लोग यह तय कर देते हैं कि हमें ब्रिटेन की तरह बनना है या बच्चे को डॉक्टर बनाना है, इंजीनियर बनाना है!सो, भारत 15 अगस्त 1947 की रात से बिना निष्काम कर्म के है। वह लक्ष्य-उद्देश्यों मे बंधा हुआ है वैसे ही जैसे भारत के हर घर का हर सदस्य, हर बच्चा, हर नौजवान उद्देश्य-मकसद, चिंता, लोभ, भूख वश सकाम कर्म की नियति लिए हुए है।
इस बात को मोटे अंदाज में पहले राष्ट्र-राज्य के परिप्रेक्ष्य में अमेरिका बनाम भारत के उदाहरण से समझा जाए। 1777 में ब्रिटेन के 13 उपनिवेशों के नेताओं ने ब्रितानी साम्राज्य से मुक्ति का ऐलान करके अमेरिका का गठन किया। ऐसा करने वाले अमेरिका के जन्मदाताओं ने अपना संविधान ब्रितानी मॉडल, उसकी संवैधानिकता याकि वेस्टमिनिस्टर मॉडल अनुसार नहीं बनाया, बल्कि यूरोपीय उदारवाद, व्यक्ति के निज अधिकारों पर बनाया। हालांकि उस वक्त राष्ट्र-राज्य के हित में राजशाही को श्रेष्ठतम माना जाता था। मगर जीवन और जीवन की खुशियों को पाने की आजादी के ब्रह्म वाक्य में अमेरिकी संविधान रचने वाले फाउंडिंग फादर्स याकि वाशिंगटन, एडम, जेफरसन और मेडिसन (ये सभी एक-एक कर राष्ट्रपति बने) ने सन् 1777 में सरकार, व्यवस्था के चेक-बैलेंस में वे तमाम सावधानियां बरतीं, जिससे व्यक्ति को निष्काम कर्म की पूर्ण आजादी प्राप्त हो। मतलब न सरकार माई बाप और न नागरिक की प्रवृत्तियों में गुलामी, भूख, बोझ को बनवाने वाले तत्व!
अब सोचें कि भारत में 15 अगस्त 1947 की आधी रात के सपने से लेकर संविधान निर्माण में नागरिक, व्यक्ति की नियति को कैसे बांधा गया? उसी ब्रितानी मॉडल में, जिससे आजाद होना था! अमेरिका के फाउंडिंग फादर्स ने ब्रितानी महारानी से विद्रोह कर आजादी प्राप्त करने के बाद ब्रितानी व्यवस्थाको नहीं अपनाया, बल्कि सुकरात, ग्रीक-रोमन दार्शनिकों, यूरोपीय पुनर्जागरण के विचारोंव आधुनिक विचारकों मसलन जॉन लॉक आदि को पढ़-समझ तय किया कि आजादी में सरकार नहीं, बल्कि नागरिक माईबाप है। उन्होंने समझा कि सरकार और सत्ता से राष्ट्र-राज्य में कैंसर बनता है। सरकार ही भ्रष्टाचार का प्रमुखतम सोर्स होती है जो अनुकंपा, भेदभाव, गुटबाजी, धर्म (चर्च) उपयोग जैसे जरियों से करप्शन बनवाती है। इसलिए सरकार और सत्ता नहीं, बल्कि व्यक्ति की, उसके जीवन, उसकी बुद्धि, उसकी अभिव्यक्ति की आजादी को, गरिमा, सुरक्षा को अधिकारों में सर्वोच्चता मिले ताकि वह निष्काम भाव कर्म कर सके। कहना अनावश्यक है कि व्यक्ति का अपनी धुन में, अपनी आजादी में निष्काम कर्म ही अमेरिका को सन् 1777 से अब तक के ढाई सौ सालों में मानव सभ्यता का सिरमौर पुंज बनाए हुए है! क्या नहीं?
ठीक विपरीत भारत केनिर्माताओं, भारत के फाउंडिंग फादर्स, गांधी-नेहरू-आंबेडकर ने क्या किया? गुलामी की व्यवस्था को, ब्रितानी व्यवस्था को रोल मॉडल बनाया। ब्रितानी प्रधानमंत्री चर्चिल कहा करते थे कि भारत के लोगों में सलीका कहां है जो वे आजादी के हकदार हैं। भारत के लोग अपने आप राज नहीं कर सकते। सोचें, तभी क्या भारत के संविधान निर्माताओं ने माना नहीं कि भारत में लोग बिना माईबाप सरकार के जी नहीं सकते हैं। न भारत के लोगों की भाषा में गवर्नेंस हो सकती है और न अंग्रेजों के बनाए आईपीसी जैसे कानूनों, लाठियों के बिना नागरिक सभ्य, विधि सम्मत जीवन जी पाएंगे।
हां, अमेरिकी निर्माताओं ने ब्रितानी राजशाही, व्यवस्था से मुक्त हो ग्रीक-रोमन-यूरोपीय पुनर्जागरण, ईसाई सभ्यता-संस्कृति-दर्शन से प्रेरणा में अपना संविधान, व्यवस्था, देश रचा,तो दूसरी ओर भारत के संविधान निर्माताओं के लिए भारत का अध्यात्म-दर्शन (गीता, उपनिषद्, आधुनिक विचारक) त्याज्य था, सांप्रदायिक धर्म रूप था और उनमें दुनिया के अनुभवों में अपनी नई मौलिक रचना का साहस भी नहीं था।
इसका नतीजा क्या हुआ?भारत के हम लोग 15 अगस्त 1947 से ऐसे सकाम कर्म में बंधे हुए हैं कि हमें ऐसा होना है, हमें वैसा होना है! हमें ब्रिटेन बनना है। हमें सोवियत संघ बनना है। हमें मिक्स आर्थिकी वाला बनना है। हमें निर्गुट रहना है। यह फलां पंचवर्षीय याएकवर्षीय योजना है और इसके फलां फलां लक्ष्य है। फलां आरक्षण है। फलां धर्मादा-खैरात है। इतने वैज्ञानिक बनने हैं, इतने डॉक्टर- इंजीनियर होने हैं। एक वक्त में कार, स्कूटर, फ्रीज आदि का निर्माण भी सरकार के द्वारा तय लाइसेंस-कोटे से हुआ करता था तो 21वीं सदी में भी आज माईबाप सरकार लोगों को यह ज्ञान देती मिलती है कि शौचालय बनाओ, साफ-सफाई रखो!
आप अमेरिका के इतिहास में खोजें तो नहीं पाएंगे कि वहां कभी शौचालय बनाओ मिशन चला या अश्वेत लोगों का उद्धार आरक्षण से सोचा गया! दुनिया की हर कौम ने, हर राष्ट्र ने, उस राष्ट्र के लोगों ने अपने को अपने आप गढ़ा। रूस, चीन, जापान, जर्मनी के बीसवीं सदी के उदाहरण एक्स्ट्रीम और घोर विपरीत व्यवस्थाओं वाले हैं लेकिन इन सबमें कॉमन रेखांकित बात अपनी जमीन, अपनी भाषा, संस्कृति, मिजाज अनुसार फाउंडिंग फादर्स के मौलिक प्रयोगों और व्यवस्थाओं की है। मतलब उन्होंने जो किया निष्काम कर्म में किया न कि नकल, बंधन कीसकाम बेड़ियों में।
मामला उलझ रहा है। मैं भटक रहा हूं। इसलिए जरा व्यक्ति के स्तर पर विचार हो। मैं और आप या आजाद भारत की तीन पीढ़ियों में उत्तरोत्तर किस बात की प्रवृत्ति बनी? जैसे 1947 से सरकार ने बतौर माईबाप भारत की आबादी को हांका वैसे घर-परिवार में भी बच्चों पर माईबाप बनने की प्रवृत्ति बनी और गहराती गई। चाहे तो आप विकास कह सकते हैं मगर अपना मानना है कि अंग्रेजों के वक्त में सरकार और घर-परिवार में निष्काम कर्म वाली मुक्तता, आजादी थी। उसके चलते 1947 से पहले भारत में विविध क्षेत्रों में हस्तियों, धर्म-समाज सुधारकों, शिक्षाविदों, विचारवानों, दार्शनिकों, वैज्ञानिकों, समाजशास्त्रियों, साहित्यकारों का रेला बना तो घर-परिवारों में भी यह हुआ करता था जो लड़के-लड़कियां भी अपनी-अपनी पसंद अनुसार बुद्धि-शिक्षा का नैसर्गिक (निष्काम) रूझान लिए हुए होते थे।
अब क्या है? गर्भ में ही माता-पिता तय कर देते हैं कि बच्चे को डॉक्टर बनना है, इंजीनियर बनना है या आईएएस-आईपीएस जैसी सरकारी नौकरियों के लिए तैयार करना है। सरकार द्वारा निर्देशित है कि आठवीं तक परीक्षा जरूरी नहीं और पढ़ाना लक्ष्य है तो लड़के-लड़कियों का दाखिला कराते हुए बिना परीक्षा के उन्हें आठवीं-दसवीं तक पहुंचा दो और आठवीं-दसवीं तक पहुंचे नहीं कि कोचिंग चालू! मतलब सवा सौ करोड़ लोगों की आबादी में बचपन से ले कर नौजवानी की पूरी जमात एक लक्ष्य विशेष की शिक्षा के सकाम कर्म में बंधी हुई! सचमुच भयावह स्थिति। आजाद भारत के सेकुलर शिक्षा विचारक हों या हिंदू शिक्षा विचारक, सभी ने भारत की स्कूली-कॉलेज-विश्वविद्यालय शिक्षा में बुद्धि को, माइंड को इन कंडीशनों में बांधा है कि तुम्हें सेकुलर बनना है या हिंदू बनना है या फलां-फलां डिग्री, करियर पाने का सकाम कर्म करना है!
ऐसा अमेरिका या उन देशों में नहीं होता है, जहां की शिक्षा से सच्चे वैज्ञानिक, माइक्रोसॉफ्ट-गूगल-फेसबुक बनाने वाले आईटी विचारक, समाजशास्त्री, दार्शनिक, चिकित्सा-रसायन-भौतिकी, आर्थिकी, साहित्य के नोबेल पुरस्कार विजेता निकलते हैं। भारत में हम आईआईटी पर इतराते हैं लेकिन ये संस्थाएं अमेरिका की एमआईटी की छटांग भी नहीं हैं और एमआईटी या हार्वर्ड की बुद्धि से जहां निर्माण होता है प्रोजेक्ट बनता-फलता है वहीं उस निर्माण में अपनी आईआईटी-आईआईएम के डिग्रीधारी बतौर कर्मी, मैनेजर, कुली, सीईओ के रूप में जैसी नौकरियां करते हैं वह उनकी और हमारी शिक्षा के इस फर्क का प्रमाण है कि वे निष्काम शिक्षा वाले हैं और हम सकाम शिक्षा वाले!
मतलब वे न्यूटन की धुन में होते हैं और हम न्यूटन की खोज के सिद्धांत का रट्टा लगा कर स्किल विशेष से समस्या समाधना करने वाले। वहां शिक्षा निष्काम कर्म साधना, बुद्धि फैलाव की स्वच्छंदता है। मतलब सत्य, ज्ञान जानने की साधना का वह योगी हठ, जिससे दिमाग, बुद्धि निरंतर सोचने के लिए उत्प्रेरित रहे।सवाल करने का अनवरत कौतुक रहे।बच्चे को, छात्र को सोचने वाला बनाना ही बिल गेट्स, सर्गेइ ब्रिन,लैरी पेज याकि माइक्रोसाफ्ट, गूगल निर्माताओं, संस्थापकों के जन्म का आधार है, जहां फिर अपनी सकाम शिक्षा से निकले सुंदर पिचाई व सत्य नडेला आदि की नौकरियां हैं।
न्यूटन और बिल गेट्स और अमेरिका सचमुच निष्काम कर्म की प्रवृत्तियों में बने, बढ़े, निखरे और शिखर के मौलिक प्रमाण है जबकि भारत का प्रमाण2020 का वह मुकाम है, जिसमें भूख, वासना, लालसा, गुलामी, नौकरी की सकाम बेड़ियों में जीना ही कर्म है, नियति है।
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