मुल्ला नसरूद्दीन और लाटरी—
मैने सुना है कि मुल्ला नसरूदीन एक गांव की सबसे गरीब गली में दर्जी का काम करता था। इतना कमा पता था कि मुश्किल से कि रोटी-रोजी का काम चल जाये, बच्चे पल जाये। मगर एक व्यसन था उसे कि हर रविवार को एक रूपया जरूर सात दिन में बचा लेता था लाटरी का टिकट खरीदने के लिए। ऐसा बाहर साल तक करता रहा, न कभी लाटरी मिली, न उसने सोचा कि मिलेगी। बस यह एक आदत हो गई थी कि हर रविवार को जाकर लाटरी की एक टिकट खरीद लेने की। लेकिन एक रात आठ नौ बजे जब वह अपने काम में व्यस्त था, काट रहा था कपड़े कि दरवाजे पर ऐ कार आकर रुकी। उस गली में तो कार कभी आती नहीं थी; बड़ी गाड़ी थी। कोई उतरा....दो बड़े सम्मानित व्यक्तियों ने दरवाजे पर दस्तक दी। नसरूदीन ने दरवाजा खोला; उन्होंने पीठ ठोंकी नसरूदीन की और कहा कि ‘’तुम सौभाग्यशाली हो, लाटरी मिल गई, दस लाख रूपये की।‘’
नसरूदीन तो होश ही खो बैठा। कैंची वहीं फेंकी,कपड़ों को लात मारी, बाहर निकला, दरवाजे पर ताला लगाकर चाबी कुएं में फेंकी। साल भर उस गांव में ऐसी कोई वेश्या न थी जो नसरूदीन के भवन में न आई हो; ऐसी कोई शराब न थी जो उसने न पीर हो; ऐसा कोई दुष्कर्म न था जो उसने न किया हो। साल भर में दस लाख रूपये उसने बर्बाद कर दिए। और साथ ही जिसका उसे कभी ख्याल ही नहीं था, जो जिंदगी से उसे साथ था स्वास्थ—वह भी बर्बाद हो गया। क्योंकि रात सोने का मौका ही न मिले—रातभर नाच गाना, शराब,साल भर बाद जब पैसा हाथ में न रहा,तब उसे ख्याल आया कि मैं भी कैसे नरक में जी रहा था।
वापस लौटा; कुएं में उतर कर अपनी चाबी खोजी। दरवाजा खोला; दुकान फिर शुरू कर दी। लेकिन पुरानी आदत वश वह रविवार को एक रूपये की टिकट जरूर ख़रीदता है। दो साल बाद फिर कार आकर रुकी; कोई दरवाजे पर उतरा—वहीं लोग। उन्होंने आकर फिर पीठ ठोंकी और कहा, इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ,दोबार तुम्हें लाटरी का पुरस्कार मिल गया, दस लाख रूपये का। नसरूदीन ने माथा पीट लिया। उसने कहा,’’माई गाड आई टु गो दैट हैल—थ्रो दैट,आल दैट हैल अगेन; क्या उस नरक में फिर से मुझे गुजरना पड़ेगा।‘’
.......गुजरना पडा होगा। क्योंकि दस लाख हाथ में आ जायें तो करोगे भी क्या। लेकिन उसे अनुभव है कि यह एक वर्ष नरक हो गया।
धन स्वर्ग तो नहीं लाता, नरक के सब द्वार खुले छोड़ देता है। और जिनमें जरा भी उत्सुकता है। वे नरक के द्वार में प्रविष्ट हो जाते है।
महावीर कहते है जो परम जीवन को जानना है तो अपनी ऊर्जा को खींच लेना होगा व्यर्थ की वासनाओं से। मिनीमम, जो न्यूनतम जीवन के लिए जरूरी है—उतना ही मांगना, उतना ही लेना,उतना ही साथ रखना, जिससे रत्तीभर ज्यादा जरूरी न हो। संग्रह मत करना।
कल की चिंता वासना ग्रस्त व्यक्ति को करना ही पड़ेगी, क्योंकि वासना के लिए भविष्य चाहिए। ध्यान करना हो तो अभी हो सकता है, भोग करना हो तो कल ही हो सकता है। भोग के लिए विस्तार चाहिए, साधन चाहिए, समय चाहिए। किसी दूसरे को खोजना पड़ेगा। भोग अकेले नहीं हो सकता है। ध्यान अकेले हो सकता है।
लेकिन बड़ी अद्भुत दुनिया है। लोग कहते है—ध्यान कल करेंगे, भोग अभी कर लें। भोग तो भविष्य में ही हो सकता है। जिसे जीवन का परम सत्य जाना हे, उसका कहना है समय की खोज ही वासना के कारण हुई है, वासना ही समय का फैलाव है। यह जो इतना भविष्य दिखलाई पड़ता है। यह हमारी वासना का फैलाव है; क्योंकि हमें इतने में पूरा होता नहीं दिखाई पड़ता। और कुछ लोग कहते है, और ठीक ही है....
मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि पुनर्जन्म का सिद्धांत प्रेमियों ने खोजा होगा; क्योंकि उनके लिए जीवन छोटा मालूम पड़ता है ओर वासना बड़ी मालूम पड़ती है। इतनी बड़ी वासना के लिए इतना छोटा जीवन तर्कहीन मालूम होता है। संगत नहीं मालूम होता। अगर दुनिया में कोई भी व्यवस्था है, तो जितनी वासना उतना ही जीवन चाहिए। इस लिए अनंत फैलाव है।
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