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Apr 9, 2014

=> न्यायपालिका के सामाजिक आधार में विस्तार की जरुरत


  • त्रिनाथ मिश्र 

         भारत की सामाजिक -राजनीतिक व्यवस्था में न्यायपालिका को सामाजिक परिवर्तन के एक हथियार के रुप में देखा जाता रहा है और न्यायपालिका ने अपने कई महत्वपूर्ण फैसले के द्वारा सामाज को एक नई दिषा देने की कोषिष भी की है । बाबजूद इसके न्यायपालिका का जो सामाजिक गठन रहा है, सामाज के जिस हिस्से, तबके और वर्ग से न्यायाधीष आते रहे है, उसका प्रभाव उन पर रहता है या कहें की रह सकता हैं । किसी भी सामाजिक -आर्थिक मुद्दे पर निर्णय  करते वक्त वस्तुनिष्ठता और निष्पक्षता की तमाम कोषिषों के बावजूद न्यायाधीषों का अपने सामाजिक -सांस्कृतिक आधार से प्रभावित होना, रहना बिल्कुल सहज -स्वाभाविक  है। लगभग सौ वर्ष पूर्व अमेरिकी राष्टपति रुजवेल्ट ने कहा था कि आर्थिक और सामाजिक पष्नों पर न्यायालयों का निर्णय जजों के सामाजिक - आर्थिक  तत्व ज्ञान पर निर्भर करता है। और भारत के संदर्भ में भी  यह काफी हद तक सच है। समाज में चल रहे सामाजिक संघर्ष  से उत्पन्न कड़वाहट के कारण न्यायाधीष अपने निर्णय में उस सघर्ष के अच्छे बुरे पहलुओं से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पातें। इसलिए कि जो व्यक्ति जिस सामाजिक  परिवेश से आता है , जाने अनजाने उस समाज की रुचि-अरुचि, अंधविष्वास  एवं पूर्वाग्रह से उसका समस्त जीवन प्रभावित होता रहता है ।
पूर्व मुख्य न्यायाधीष पीएम भगवती ने भी स्वीकारा था कि चूंकि न्यायधीश संपन्न समाज-वकीलों में से ही आते रहें हैं, इसलिए अनजाने में ही वे कई पूर्वाग्रह पाले रहते हैं। अभी तक न्यायपालिका के सदस्यों को समाज के उस वर्ग से लिया जाता रहा है जो प्राचीन अंध विश्वासों एवं मान्यताओं से प्रभावित जीवन में अनुक्रम  की अवधारणा से ओतप्रोत है । अतः यह धारणा सवर्था गलत नहीं है कि न्यायाधीषों का वर्ग हित उनके निर्णयों में उस बौद्धिक ईमानदारी और सत्यनिष्ठा को रहने नहीं देता जो कि न्याय का तकाजा है । न्यायाधीषों को शासित वर्ग की जीवनशैली , उनके दूख सुख, पीड़ा-त्रासदी के बारे में बहुत कम जानकारी रहती है। षासित वर्ग की मर्यादा और प्रगति  के संवर्द्धन- परिवर्द्धन के लिए बनाये गये ठोस उपायों के प्रति अमूमन उनकी सहानुभूति नहीं होती है । जबकि इस वर्ग का दूख-तकलीफ, पीड़ा-त्रासदी को समझने के लिए  आज सहानुभूति से अधिक सम अनुभूति की जरूरत है और सच यह है कि न्याय की देवी अपनी आंखें पर परंपराओं  की पट्टी बांधे हुए है ।जो उसे षासित वर्ग की  वास्तविक समस्याओं से  रु-ब-रु नहीं होने दे रहा है। हमारे समाज का जो हिस्सा समाज से बहिस्कृत है, षासन की परीधी से बाहर है, अपवादों को छोड़कर , आज भी न्याय पाना उसें लिए आसमान से तारें तोड़े के समान है।
न्यायपालिका की बनावट कुछ एैसी होनी चाहिए कि वह राष्टीय जीवन की समस्त सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं को प्रदर्षित कर सके। और इसी को दृष्टिगत रख कर पूर्व राष्टपति के आर नारायणन ने कहा था कि न्यायपालिका में सभी बड़े क्षेत्रों और समाज के सभी वर्गो का समुचित प्रतिनिधित्व होना चाहिए।
ऐसा कह कर दरअसल श्री के आर नारायाणन ने संविधान की प्रस्तावना में निहित सामाजिक तत्व ज्ञान का दुहराया भर था। जिसके प्रति अपनी वचनबद्धता निरन्तर   दुहराते रहने के बाबजूद विभिन्न राजनीतिक दल और सरकार कार्यकर्म में लगातार उसकी उपेक्षा करते है।  दुर्भाग्यवश   राष्ट्रपति  के रुप में श्री नारायाणन की सक्रियता का हौवा खडा किया गया। इसे न्यायापालिका के मंडलीकरण की कोशिश भी कहा गया। के आर नारायणन की इस प्रयासों को दलित-पिछड़ा एवं वचित तबको को न्याय दिलाने की एक ईमानदार कोषिष के रुप में चिन्हित नहीं किया गया। इस बात से कौन इन्कार कर सकता है कि हमार न्याया व्यवस्था समाज के वंचित एवं षोषित तबकों के बीच अपनी साख लगातार खोती जा रही है। और इस साख को बचाने का एक मात्र उपाय न्यायपालिका में इन तबकों की भागीदारी को सुनिष्चित करना हो सकता है। दलित -पिछड़ों की आबादी समपूर्ण राष्ट्र का 75 फीसदी है बावजूद इसके न्यायपालिका में इनका प्रर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं होगा तो क्या 10 फीसदी वाली आभिजात्य  आबादी को  राष्ट्र का सच्चा प्रतिनिधि माना जायेगा। बार -बार योग्यता का सवाल खड़ा कर यह बताने की कोषिष की जाती है कि शोषित-वंचित जातियों में इसका अभाव है, पर क्या यह तथाकथित  उच्च और प्रखर  योग्यता हजारों बरसों से सामाजिक -आर्थिक और शैक्षणिक अवसरों के एकाधिकारवादी दोहन -उपयोग का प्रतिफल नहीं है। फिर यहां सवाल योग्यता का नहीं होकर सहभागी    लोकतंत्र की उस संकल्पना को पूरा करने का है, जिसकी बुनियादी षर्त सत्ता के सभी संस्थानों में सभी की सम्पूर्ण भागीदारी है।

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