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Nov 29, 2015

=> नए सियासी समीकरणों की आहट

बिहार में महागठबंधन सरकार के सत्तारूढ़ होते ही सामाजिक राजनीति की एक नई आधारशिला भी रख दी गई। इसका कारण महागठबंधन सरकार में नीतीश कुमार की जदयू और लालू यादव की राजद के साथ कांग्रेस का साझेदार होना है। यह साझेदारी सामाजिक समीकरणों की एक नई तस्वीर पेश कर रही है। नीतीश ने इसके पहले भी साझा सरकार चलाई, लेकिन ये सरकार पिछली साझा सरकारों से कई मायनों में भिन्न् है। एक समय नीतीश और लालू अलग सामाजिक समीकरणों के साथ-साथ अलग सोच और भिन्न् तौर-तरीकों वाली राजनीति का नेतृत्व करते थे। 
         दोनों के मिलन ने बिहार के राजनीतिक व सामाजिक परिदृश्य को बदलने का काम किया। नीतीश 17 साल तक भाजपा के सहयोगी रहे। उन्होंने लगभग नौ वर्षों तक उसके साथ गठबंधन सरकार भी चलाई। वह 2005 में भाजपा के सहयोग से ही लालू की बिहार में मजबूत राजनीतिक पकड़ को खत्म करने में सफल रहे थे। तब उन्होंने राजद के कुशासन को मुख्य मुद्दा बनाया। लालू के 15 साल के शासन में बिहार विकास की दौड़ में पिछड़ता जा रहा था। नीतीश ने लोगों को भरोसा दिलाया कि वह बिहार की तकदीर बदल देंगे। उनकी बातों पर बिहार की जनता ने इस हद तक भरोसा किया कि दो बार भाजपा-जदयू गठबंधन को सत्ता सौंपी। नीतीश ने 2013 के अंत में जब नरेंद्र मोदी के मुद्दे पर भाजपा से नाता तोड़ा था तो शायद उन्होंने भी यह नहीं सोचा होगा कि अपनी राजनीतिक नैया पार लगाने के लिए उन्हें अपने चिर-प्रतिद्वंद्वी लालू का सहारा लेना होगा, लेकिन बिहार के जनादेश ने यह साबित कर दिया कि नीतीश के फैसले को जनता ने स्वीकार कर लिया। बिहार के इन चुनावों पर नीतीश की तरह लालू का भी राजनीतिक अस्तित्व दांव पर था। लगातार चुनाव हारकर राजनीतिक रूप से हाशिए पर पहुंच गए लालू के लिए कुशासन और जंगलराज की अपनी छवि से अकेले दम पर उबर पाना लगभग असंभव था। 
         अगर राजद जदयू और कांग्रेस के साथ गठबंधन कर चुनाव में न उतरता तो संभवत: लालू को एक और करारी हार का सामना करना पड़ता। बिहार में जो महागठबंधन बना, उसके पीछे तीनों घटक दलों जदयू, राजद व कांग्रेस की अपनी-अपनी सियासी मजबूरी थी, लेकिन इसकी कल्पना शायद इन दलों को भी नहीं रही होगी कि उनका यह प्रयोग इतना सफल रहेगा। नीतीश की महागठबंधन सरकार में उम्मीद के मुताबिक लालू प्रसाद के दोनों बेटों को कोई राजनीतिक अनुभव न होने के बावजूद प्रमुख मंत्रालय मिले हैं। दोनों को तीन-तीन मंत्रालय मिले हैं। छोटे बेटे को तीन मंत्रालयों के साथ उपमुख्यमंत्री पद भी मिला है। इससे यह साबित हो जाता है कि नई सरकार में राजद, विशेषकर लालू के परिवार का खासा प्रभाव है। नीतीश के मंत्रिमंडल पर निगाह डालने से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि मंत्रियों के चयन में लालू प्रभावी रहे, क्योंकि वित्त मंत्रालय भी राजद के वरिष्ठ नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी को मिला है। साझा सरकारों में शामिल दलों को समझौते करने ही पड़ते हैं। यह साफ है कि नीतीश को भी समझौते करने पड़े हैं। इस सबके बावजूद उनकी सरकार व्यापक सामाजिक जनाधार से लैस दिखती है। महागठबंधन सरकार अलग-अलग सामाजिक घटकों के मिलन का परिचायक है। महागठबंधन सरकार का नेतृत्व संभालने के पहले तक नीतीश की राजनीति यादवों के वर्चस्व वाली राजद की सामाजिक न्याय और नजरिए वाली राजनीति से अलग किस्म की रही। उन्होंने पिछड़ी जातियों के साथ-साथ अति पिछड़ी जातियों को भी अपनी राजनीति के केंद्र में रखा और उस जनाधार का भी नेतृत्व किया जिसका प्रतिनिधित्व भाजपा विकास के नारे के साथ करती थी। 
         
विधानसभा चुनाव में भाजपा की ओर से विकास के अपने मूल मुद्दे से हटकर जो राजनीति की गई, उससे महागठबंधन को स्वत: ही समाज के ज्यादा बड़े वर्ग का साथ मिल गया। अलग-अलग और यहां तक कि एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी तबके भी एक साथ इसलिए आ मिले, क्योंकि संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा की जो जरूरत जताई उसे लालू-नीतीश अच्छे से भुनाने अर्थात अपने-अपने लोगों को यह संदेश देने में सफल रहे कि आरक्षण बचाने के लिए एकजुट होने की जरूरत है। नतीजा यह हुआ कि राजद के यादव मतदाताओं के साथ पिछड़े, अति पिछड़े, दलित, महादलित व मुस्लिम मतदाता मिल गए और महागठबंधन को निर्णायक जनादेश प्राप्त हुआ। अब महागठबंधन सरकार के लिए राजनीतिक और साथ ही सामाजिक रूप से अलग-अलग खेमों में रहे इन जातीय समूहों को एकजुट बनाए रखना किसी चुनौती से कम नहीं, क्योंकि जो अलग-अलग समूह एक साथ आ मिले, उनमें कई पारंपरिक तौर पर एक-दूसरे के विरोधी भी रहे हैं।

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