किसको तुम अपना मित्र कहते हो?
क्योंकि सभी अपने स्वार्थों के लिए जी रहे हैं।
जिसको तुम मित्र कहते हो, वह भी अपने स्वार्थ के लिये तुमसे जुड़ा है और तुम भी अपने स्वार्थ के लिये उससे जुड़े हो।
अगर मित्र वक्त पर काम न आये तो तुम मित्रता तोड़ दोगे। बुद्धिमान लोग कहते हैं मित्र तो वही, जो वक्त पर काम आये। लेकिन क्यों? वक्त पर काम आने का मतलब है कि जब मेरे स्वार्थ की जरूरत हो, तब वह सेवा करे।
लेकिन दूसरा भी यही सोचता है कि जब तुम वक्त पर काम आओ, तब मित्र हो। लेकिन तुम काम में लाना चाहते हो दूसरे को यह कैसी मित्रता है? तुम दूसरे का शोषण करना चाहते हो; यह कैसा संबंध है? सब संबंध स्वार्थ के हैं।
पिता बेटे के कंधे पर हाथ रखे है, बेटा पिता के चरणों में झुका है, सब संबंध स्वार्थ के हैं। और जहां स्वार्थ महत्वपूर्ण हो वहां संबंध कैसे? लेकिन मन चाहता है; अकेले होने में डर पाता है, इसलिये मन चाहता कि कोई संगी-साथी हो।
संगी-साथी हमारे मन की कल्पना है, क्योंकि अकेले होने में हम भयभीत हो जाएंगे। सब से बड़ा भय है अकेला हो जाना, कि मैं बिलकुल अकेला हूं।
तो हम विवाह करते हैं, किसी स्त्री को पत्नी कहते हैं, किसी पुरुष को पति कहते हैं, किसी को मित्र बनाते हैं। थोड़ा-सा एक आसपास संसार खड़ा करते हैं। उस संसार में हमें लगता है कि अपने लोग हैं, यह अपना घर है।
लेकिन जो भी थोड़ा-सा जागेगा वह पायेगा कि इस संसार में बेघर-बार होना नियति है। यहां घर धोखा है। हम यहां बेघर हैं।
बुद्ध अपने भिक्षुओं को अनेक नाम दिये हैं, उनमें एक नाम है 'अगृही'--जिसका कोई घर नहीं। इसका यह मतलब नहीं है कि वह किसी घर में, किसी छप्पर के नीचे न रुकेगा। वह तो बुद्ध को भी कभी वर्षा होती है तो छप्पर के नीचे रुकना पड़ता है। कभी धूप होती है तो छप्पर के नीचे सोना पड़ता है।
मतलब यह है कि जिसका यह बोध टूट गया, यह भ्रांति जिसकी मिट गई कि इस संसार में मेरा कोई घर है। पड़ाव हैं, सरायें हैं; लोग आते हैं और जाते हैं लेकिन यहां कोई ठहरता नहीं।
तुम नहीं थे तब बहुत लोग यहां थे। तुम नहीं होओगे बहुत लोग यहां रहेंगे। यह भीड़ चलती ही रहती है; यह बाजार भरा ही रहता है। तुम हटे नहीं कि कोई दूसरा तुम्हारी जगह को भर देता है। तुम गये नहीं कि कोई दूसरा तुम्हारे घर को अपना घर समझ लेता है।
🧘♂️🙏🌹ओशो🌹🙏🧘♂️
बिन बाती बिन तेल
(प्रवचन-11)
No comments:
Post a Comment