- हरि शंकर व्यास
पिछली सदी के पहले और आखिरी दशक को छोड़ दें तो लगभग पूरी सदी गांधी और नेहरू की थी। दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद महात्मा गांधी आजादी की लड़ाई की धुरी बने और जब देश आजाद हुआ तो जवाहरलाल नेहरू राजकाज और राजनीति दोनों का केंद्र हुए। उनके बाद उनकी बेटी इंदिरा गांधी और फिर राजीव गांधी ने देश और राजनीति दोनों की कमान संभाली। पक्ष और विपक्ष दोनों की राजनीति इस परिवार के पक्ष या विपक्ष में हुई। पर राजीव गांधी के निधन के बाद से परिवार हाशिए में चला गया।
ध्यान रहे गांधी-नेहरू परिवार से प्रधानमंत्री बनने वाले आखिरी व्यक्ति राजीव गांधी थे। वे 1989 में चुनाव हार कर प्रधानमंत्री पद से हटे थे और उसके बाद पिछले 30 साल से गांधी-नेहरू परिवार का कोई सदस्य प्रधानमंत्री नहीं बना है। यह अलग बात है कि परिवार ने प्रधानमंत्री बनवाए। 1991 में पीवी नरसिंह राव को, 1996 में एचडी देवगौड़ा को, 1997 में आईके गुजराल को और 2004 में मनमोहन सिंह को सोनिया गांधी और कांग्रेस ने प्रधानमंत्री बनवाया। पर उनके परिवार का कोई सदस्य प्रधानमंत्री नहीं बन पाया।
ध्यान रहे गांधी-नेहरू परिवार से प्रधानमंत्री बनने वाले आखिरी व्यक्ति राजीव गांधी थे। वे 1989 में चुनाव हार कर प्रधानमंत्री पद से हटे थे और उसके बाद पिछले 30 साल से गांधी-नेहरू परिवार का कोई सदस्य प्रधानमंत्री नहीं बना है। यह अलग बात है कि परिवार ने प्रधानमंत्री बनवाए। 1991 में पीवी नरसिंह राव को, 1996 में एचडी देवगौड़ा को, 1997 में आईके गुजराल को और 2004 में मनमोहन सिंह को सोनिया गांधी और कांग्रेस ने प्रधानमंत्री बनवाया। पर उनके परिवार का कोई सदस्य प्रधानमंत्री नहीं बन पाया।
पिछले तीन दशक को ले कर कहा जा सकता है कि लंबे समय तक या आधे से ज्यादा समय तक गांधी-नेहरू परिवार का राजनीतिक वर्चस्व रहा पर इतिहास उसे शायद ही याद करेगा। याद करें प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद मनमोहन सिंह ने क्या कहा था? उन्होंने कहा था कि उन्हें भरोसा है कि इतिहास उनके बारे में फैसला करेगा और ज्यादा उदारता के साथ फैसला करेगा। जाहिर है कि आने वाले दिनों में देश के इतिहास में उनके कामकाज का आकलन किया जाएगा। 2004 से 2014 के कालखंड को मनमोहन सिंह के कालखंड के तौर पर जाना जाएगा। उस समय की सरकार का आकलन उनके कामकाज से किया जाएगा। यह शायद ही कोई कहेगा कि उनकी सरकार सोनिया गांधी या अहमद पटेल चलाते थे।
ऐसे ही पिछली सदी का आखिरी दशक पीवी नरसिंह राव, मनमोहन सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी के लिए याद किया जाएगा। यह कोई याद नहीं करेगा कि सोनिया गांधी ने नरसिंहराव को प्रधानमंत्री बनाया था। हां, नरसिंह राव ने बतौर प्रधानमंत्री इस देश की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से बदल दिया, यहीं विचार का विषय होगा। अटल बिहारी वाजपेयी भाजपा के पहले प्रधानमंत्री बने, इसलिए भी उस दशक को याद किया जाएगा। नए साल का पहला दशक मनमोहन सिंह के लिए और दूसरा दशक नरेंद्र मोदी के लिए याद किया जाएगा। सो, राजनीतिक रूप से सक्रिय और प्रभावशाली रहते हुए भी पिछले तीन दशक को गांधी-नेहरू परिवार का दशक नहीं कहा जा सकता है।
तभी सवाल है कि क्या नए दशक में कांग्रेस की ऐसी भूमिका बन सकती है, जिससे इसे सोनिया गांधी के परिवार का दशक कहा जाए? ऐसा हो सकता है पर वह कई कारकों पर निर्भर करेगा। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत बनाने का नारा देकर जब चुनाव जीता था तब उन्होंने देश को कांग्रेस से मुक्त कराने के दो पैमाने तय किए थे। या यूं कहें कि वे जब जीते थे तब कांग्रेस के खिलाफ देश का मूड दो पैमानों पर बना था। पहला पैमाना भ्रष्टाचार का था और दूसरा वंशवाद का। मोदी ने लगातार इन्हीं दो मसलों पर कांग्रेस को निशाना बनाया। पर अब ये दोनों पैमाने बदल गए हैं। भाजपा ने ऐसी पार्टियों के साथ सरकार बनाई है या ऐसे नेताओं को सरकार में रखा है, जो भ्रष्टाचार और वंशवाद दोनों का प्रतीक हैं। इसलिए अब भाजपा के नेताओं ने भ्रष्टाचार और वंशवाद की बातें बंद कर दी हैं। अब अनुच्छेद 370, तीन तलाक, राम मंदिर, नागरिकता आदि के मुद्दे पर राजनीति शिफ्ट हो गई है।
तभी कांग्रेस के लिए अवसर बनने की संभावना है। कोई भी शासन जब पिछले शासन से ज्यादा बुरा होता है तो लोग पिछले शासन को याद करते हैं। उनका अवचेतन उसके बारे में सोचने लगता है और यहीं से पिछले शासन की वापसी की राह बनती है। केंद्र के स्तर पर अभी भले यह प्रक्रिया पूरी तरह से शुरू नहीं हुई हो पर राज्यों में इसकी शुरुआत हो गई है। राज्यों में लोगों ने भाजपा के क्षत्रपों का विकल्प खोज कर उनको सत्ता सौंपनी शुरू कर दी है। सो, देर-सबेर यह प्रक्रिया देश के स्तर पर भी हो सकती है। यह कहना बेमानी और फालतू है कि कांग्रेस के पास नेता कौन है और उसके पास संगठन कहा हैं। भारत में कम से कम पिछले तीन दशक में एक या दो चुनाव ही सकारात्मक वोट वाले हुए हैं बाकी चुनाव नकारात्मक वोटिंग वाले थे। यानी मौजूदा सरकार को हराने के लिए लोगों ने वोट किया था। उन्होंने यह नहीं देखा था कि विकल्प कौन है। वे सरकार से परेशान थे और उसे हटा दिया।
सो, कांग्रेस की एक उम्मीद इस संभावना से बनती है कि मौजूदा सरकार लगातार गलतियां करे। इससे अपने आप लोगों का मोहभंग होगा। दूसरी संभावना देश के आर्थिक हालात से बन रही है। नोटबंदी के बाद से यानी नवंबर 2016 के बाद से देश की आर्थिक स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है और देश से ज्यादा आम लोगों की स्थिति खराब हुई है। पिछले दशक में जिस भारत गाथा की बात होती थी वह अब विलीन हो गई है। अगले दशक में भारत की आर्थिकी को लेकर चिंता और संशय है। अगर आर्थिक हालात ऐसे ही बने रहे तो जो राजनीतिक बदलाव होगा, उसकी लाभार्थी भी कांग्रेस हो सकती है। तीसरी संभावना गैर भाजपा दलों के ध्रुवीकरण से बन रही है। जिस तरह से देश भर में पार्टियां भाजपा के विरोध में जुटने लगी हैं उससे 1977 के घटनाक्रम की याद आती है। तब इंदिरा हटाओ के नाम पर विपक्ष एकजुट हुआ था। अब मोदी-शाह रोको के नाम पर विपक्ष एकजुट हो रहा है। और यहां तक कि इस प्रक्रिया में भाजपा की सहयोगी रही पार्टियां भी शामिल हो रही हैं। कांग्रेस को इन हालात का फायदा उठाने के लिए बस अपनी पोजिशनिंग सही रखनी है। बाकी चीजें अपने आप होंगी।
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