लोंगो में विश्वास कायम रखना
मीडिया के लिए सबसे बड़ी चुनौती!
"'पॉप आर्ट आइकॉन एंडी वारहोल' का कहना शायद सही था, "कि यहां हर कोई अपनी 15 मिनट की शोहरत तलाश रहा है?" लेकिन आज के अनुसार 24X7 से चलने वाली मीडिया में मामला महज़ 15 सेकंड की साउंडबाइट तक सिमट गया है। अगर हम 1998 की बात करें तो केवल एक 24’7 नेटवर्क था मगर आज एक से ज्यादा 24’7 न्यूज चैनल है ... जो खबरों को देश और दुनिया के बीच से ले रही है, झपट रही है, और खासतौर पर झपटे खबरों में उनकी वो खबर होती है जो हंगामाखेज हो, चटपटी हो, स्टूडियों के अन्दर एसी में पसीना लाने वाली खबर या फिर एकंर को क्यों ना क्रिमनल बनने पर मजबूर कर सनसनी फैलाने वाली हो?"
सिकेन शेखर
आज के दौर में मीडिया आपसे कितना परिचित है? आप और हम सब मीडिया से कितना परिचित है? शिक्षण संस्थान जो पत्रकारिता तथा मीडिया के उन तमाम पहलुओं से छात्र-छात्राओं को परिचित करवाते हैं वो कितना एक दूसरे से परिचित हैं ये ऐसे मुद्दे हैं जो आज की पत्रकारिता की दुनिया में एक प्रश्नचिन्ह बनकर उन तमाम पत्रकारों पर काले बादल की तरह मडरा रहे है जो अच्छी पत्रकारिता के पक्षधर हैं। पत्रकारों के रास्ते में बाधा बन कर गंभीरता से सोचने पर विवश कर देने वाला कुछ जटिल विषय सामने आता है। आज अगर एक राज्य स्तरीय राजनितिक पार्टी के नेता से राष्ट्रीय स्तर के राजनितिक पार्टी के नेता स्वास्थ्य के बारे में जानने के लिए मिलते हैं -तो खबर तो बनती है भाई, खबर बनना भी लाजमी है! नेता जो हैं, लेकिन उस खबर को उस दिन का प्राइम टाइम खबर बना कर राजनितिक समीकरण जैसे शब्दों का हवाला देना शायद पत्रकारिता के ऊपर सवाल खड़ा करने के बराबर है। लेकिन मसला यही खत्म नही होता अगर उसी दिन उस राज्य के मुख्यमंत्री के खिलाफ हजार लोग कुछ जरूरी मांगों को लेकर प्रदर्शन करते है तो उस न्यूज को एक खबर का भी स्थान ना देना कहीं न कहीं बेमानी है, शायद ये पत्रकारिता की जिम्मेदारी से दूर होकर पत्रकारिता में रह कर इस क्षेत्र पर सवाल खड़ा करना जैसा है। सवाल ये कि मीडिया सवाल तो करती है मगर इस सवाल का जबाब कौन देगा? ना जाने इस तरह कितने ऐसे सवालों से मीडिया घिरी है जिसको कोई उठाने वाला नहीण्ण् खासतौर पर जिस रफ्तार से क्षेत्रीय स्तर पर मीडिया का विकास हुआ है उसी रफ्तार से मीडिया अपनी जबाबदेही खोती चली गई ... जिसका सबसे बड़ा परिणाम निकल कर यह आया कि आज के दिनों में लोग मीडिया से डरते है मगर मीडिया के लोगों को इस नजर से देखते है जैसे कोई तमाशा करने वाला है और इसमें कोई संदेह नही कि मीडिया कभी.कभी तमाशा से कुछ कम ड्रामा नही करती, ये सच्चाई है कि मीडिया ड्रामा भी करती है ... फिलहाल मीडिया के लिए चुनौती तो ये है कि लोग इस क्षेत्र के लोगों को आदरपूर्वक देखें। य़े जानकर बड़ा आश्चर्य होता है कि सुबह से शाम और शाम से सुबह 24’7 के चाल से चलने वाली इस मीडिया के खिलाफ लोगों का आक्रोश आज तक देखने को नही मिला मगर मीडिया के मंच पर कभी-कभी इस तरह के मुद्दे पर बहस देखने व सुनने को मिलती रहती है ... अगर हम बात करें अन्य लोकतांत्रिक स्तंभ की तो विधाइका, कार्यपालिका व न्यायपालिका, जिसके खिलाफ हमेशा लोगों कि आवाजें उठती रही है, मगर चौथे स्तंभ को लेकर आज तक जन-आक्रोश नही उठीं। कहीं न कही लोग इस मसले को समझ नही पाये, नही तो इसके खिलाफ भी हमें आक्रोश देखने को मिल सकता था? खैर, मीडिया की उम्मीद तो ये है कि स्व विनियमन से इसकी छवि सुधारी जाए ... फिल्म की दुनिया कि बात करे या फिर खबरों की दुनिया की बात करें, ये दुनिया के लोगों का लक्ष्य कहीं ना कहीं अमेरिकी पॉप 'आर्ट आइकॉन एंडी वारहोल' से मिलती नजर आती हैं ...
'पॉप आर्ट आइकॉन एंडी वारहोल' का कहना शायद सही था, "कि यहां हर कोई अपनी 15 मिनट की शोहरत तलाश रहा है?" लेकिन आज के अनुसार 24X7 से चलने वाली मीडिया में मामला महज़ 15 सेकंड की साउंडबाइट तक सिमट गया है। अगर हम 1998 की बात करें तो केवल एक 24’7 नेटवर्क था मगर आज एक से ज्यादा 24’7 न्यूज चैनल है ... जो खबरों को देश और दुनिया के बीच से ले रही है, झपट रही है, और खासतौर पर झपटे खबरों में उनकी वो खबर होती है जो हंगामाखेज हो, चटपटी हो, स्टूडियों के अन्दर एसी में पसीना लाने वाली खबर या फिर एकंर को क्यों ना क्रिमनल बनने पर मजबूर कर सनसनी फैलाने वाली हो? जहाँ पहले न्यूज स्टोरी पर रोशनी डालना मकसद होता था, वही अब खबर की जगह सनसनी ने और इतिहास की जगह ड्रामेबाजी ने ले ली है। हां माध्यम वही है मगर संदेश काफी हद तक बदल गया है। शायद इसी का परिणाम है कि दर्शकों द्वारा उसे समझने के तरीके में गुणात्मक परिवर्तन और नकारात्मक सोच आया और यही वजह है कि मीडिया को देखने का नजरिया लोगों में बदलना इस वक्त की सबसे बड़ी चुनौति बन सकती है? यहां पर अपने दिशासूचक यंत्र को लेकर चलना बहुत अहम व खास है, जो पत्रकारिता की प्राथमिकताओं को परिभाषित करता है। इसमें कोई दो राय नही की पत्रकारिता संपूर्ण भारत के लिए बदलावकारी घटक हो सकती है, कैमरा और कलम भ्रष्ट को बेनकाब कर सकता है, लेकिन इस पहलू को जोड़ने के लिए हमें ऐसा रास्ता अपनाना होगा जिस पर त्वरित साउंडबाइटस और दोहरावादी ड्रामा, हंगामेंखेज व चटपटी बल्कि जानकारीपरक राय और असल स्टोरिज हों।
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