गुजरात उच्च न्यायालय ने जब 2009 में अपना निर्णय सुनाया कि भारत की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है, तब हम चौंके अवश्य थे, पर किया कुछ नहीं। न्यायालय ने माना कि देश में बहुतायत लोगों ने हिंदी को अपनी राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार कर लिया है, अधिकतर लोग हिंदी समझते और बोलते हैं और देवनागरी लिपि में लिखते भी हैं, पर संविधान के अनुसार हिंदी राजभाषा है, राष्ट्रभाषा नहीं।
प्रेम लता
गुजरात उच्च न्यायालय ने जब 2009 में अपना निर्णय सुनाया कि भारत की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है तब हम चौंके अवश्य थे, पर किया कुछ नहीं। न्यायालय ने माना कि देश में बहुतायत लोगों ने हिंदी को अपनी राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार कर लिया है, अधिकतर लोग हिंदी समझते और बोलते हैं और देवनागरी लिपि में लिखते भी हैं, पर संविधान के अनुसार हिंदी राजभाषा है, राष्ट्रभाषा नहीं। एक जनहित याचिका में अनुरोध किया गया था कि उपभोक्ता को अधिकार है कि वह डिब्बाबंद वस्तुओं में शामिल तत्त्वों का विवरण जाने। चंूकि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है, इसलिए उत्पादकों को हिंदी में विवरण छापने के निर्देश दिए जाएं। वकील ने अपनी बहस में विधानसभा में इस विषय में हुई चर्चा का भी उल्लेख किया। यही नहीं, केंद्र की तरफ से उपस्थित वकील ने यह भी बताया कि माप-तौल विभाग के नियमों के अनुसार सभी पैकेटों पर विवरण हिंदी या अंगरेजी में लिखे और छापे जाने चाहिए। पर न्यायालय का सीधा प्रश्न था- क्या कभी कोई ऐसी अधिसूचना जारी हुई है कि हिंदी देश की राष्ट्रभाषा है? यहां एक चूक वकीलों से भी हुई। वे यह नहीं बता पाए कि राजभाषा अधिनियम की धारा 3 (3) के तहत कुछ दस्तावेजों का द्विभाषी किया जाना अनिवार्य है। उनका हिंदी को राष्ट्रभाषा कह देना ही बड़ा प्रश्न बन गया। अधिक झकझोरने वाला यह सत्य था कि देश की कोई राष्ट्रभाषा है ही नहीं!
देश के कर्णधारों को हिंदी, संस्कृत और प्रांतीय भाषाओं में शपथ लेते देख कर अच्छा लगा, पर ऐसा करने के बाद हमारे नेताओं को अब राष्ट्रभाषा के बारे में सोचना पड़ेगा। अगर हम इतने बड़े देश की बाईस राजभाषाओं में से किसी एक को अपनी राष्ट्रभाषा नहीं बना सकते तो विदेशों में जाकर हिंदी में भाषण देकर सिर कैसे ऊंचा कर सकेंगे! सरकार को अब इस अग्निपथ को पार करना ही पड़ेगा, भले इसमें कुछ समय लगे। यह सभी भाषाओं के पक्षधरों के लिए एक चुनौती भी है कि उन्होंने अपनी भाषा का कितना विस्तार किया है। राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत में संविधान के अनुच्छेद 345, 346 और 347 सभी राज्यों को दायित्व देता है कि वे अपने राज्य की राजभाषा का विस्तार करें, उसे सर्व-ग्राह्य बनाएं। पर सवाल है कि आज भी सभी राज्य भाषा विस्तार के समुचित निर्देश क्यों नहीं देते। यही नहीं, राजभाषा संकल्प 1968 के अंतर्गत एक निर्देश यह भी था कि शिक्षा के स्तर पर त्रिभाषा फार्मूला लागू किया जाए, जिसमें सभी दक्षिण भारतीय राज्यों में हिंदी तीसरी भाषा के रूप में पढ़ाई जाए और हिंदीभाषी क्षेत्रों में दक्षिण भारतीय भाषाएं पढ़ाई जाएं। मगर विचित्र है कि त्रिभाषा फार्मूला में आज हमारे बच्चे फ्रेंच और जर्मन पढ़ रहे हैं। इन्हीं बाईस राजभाषाओं में हिंदी एक है और उसको विस्तार देना भी सरकार का दायित्व है। संघ की राजभाषा हिंदी को समृद्ध बनाने का दायित्व विशेष रूप से अनुच्छेद 351 के तहत केंद्र को दिया गया है। आज जब लगभग पैंतालीस प्रतिशत लोग हिंदी बोलते और समझते हैं, इसके लिए केंद्र सरकार को सभी संभव प्रयास करने ही चाहिए। राज्य सरकारों को भी अधिकार है कि वे अपनी राजभाषाओं को समृद्ध करें। प्रावधान बड़े स्पष्ट हैं, किसी के अधिकार में हस्तक्षेप की कोई गुंजाइश नहीं है। यह प्रश्न आज भी मौजूद है कि क्या हमारे देश की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 343 में यह प्रावधान किया गया था कि संघ की राजभाषा हिंदी होगी, पर संविधान के लागू होने के पंद्रह साल तक सरकारी कामकाज अंगरेजी में ही होगा। इस बीच राष्ट्रपति अंगरेजी के साथ हिंदी के प्रयोग के भी आदेश दे सकेंगे। यह समय इसलिए दिया गया था कि देश भर में हिंदी में काम करने के लिए सब व्यवस्थाएं और तंत्र तैयार किया जा सकें। हमारे संविधान के अनुच्छेद 351 में प्रावधान है कि संघ हिंदी को समृद्ध बनाने और आठवीं अनुसूची में विहित प्रादेशिक राजभाषाओं के साथ तालमेल बनाने के लिए सभी उपयुक्त प्रयत्न करेगा। हिंदी के विकास और समृद्ध बनाने के लिए यह स्पष्ट निर्देश है। संविधान की आठवीं अनुसूची में कुछ प्रादेशिक भाषाओं को रखा गया था, जिनमें से कुछ अब भाषाएं हो गई हैं, उन्हें राज्य की राजभाषा का दर्जा प्राप्त है। रोचक बात यह है कि अंगरेजी विदेशी भाषा होने के कारण इस सूची में नहीं है, पर इस भाषा में हमारे देश का सारा काम होता है। अनुच्छेद 345, 346 और 347 के अनुसार कोई राज्य अगर चाहे तो राष्ट्रपति की अनुमति से किसी प्रादेशिक भाषा को राज्य के कामकाज की भाषा घोषित कर सकता है, पर जब तक ऐसा न किया जाए, राज्य के सभी काम अंगरेजी में होंगे। अनुच्छेद 348 के अनुसार सर्वाेच्च न्यायालय और सभी राज्यों के उच्च न्यायालयों की प्रक्रिया और आदेश अंगरेजी में ही जारी होंगे। सन 1963 में राजभाषा अधिनियम बना। मगर हम तब तक अंगरेजियत के रंग में रंग चुके थे, अंगरेजी में बोलना पढ़े-लिखे होने का पर्याय बन चुका था, हम हिंदी के लिए तैयार ही नहीं थे। इस अधिनियम में हिंदी में काम करने के स्थान पर आवश्यक दस्तावेजों को द्विभाषी करने के प्रावधान कर दिए गए। बाकी काम अंगरेजी में ही चलते रहने की स्थिति बनी रही। इस अधिनियम में 1967 में संशोधन करके 25 जनवरी, 1965 के बाद भी यही स्थिति बरकरार रखने की छूट ले ली गई। बस यह आश्वासन बना रहा कि हिंदी में अनुवाद होता रहेगा। पंद्रह वर्षों मंत हिंदी लाने के संवैधानिक प्रावधान ने यह रूप ले लिया। पूरा देश अनुवादक हो गया। देश में हिंदी तंत्र को चलाने के लिए केंद्रीय हिंदी निदेशालय बन गया। 1976 में राजभाषा नियम बन गए। सब सरकारी कार्यालयों में हिंदी अधिकारी और अनुवादक परिपत्रों, अधिसूचनाओं, विज्ञापनों, संसद के समक्ष रखे जाने वाले दस्तावेजों के अनुवाद करने लगे। जब मूल काम हो जाता है तो उनका हिंदी अनुवाद करके फाइलों में संभाल कर रख दिया जाता है। अब इन कामों के लिए प्रोत्साहन भत्ते दिए जाते हैं, ट्रॉफियां बंटती हैं, प्रतियोगिताएं होती हैं, हिंदी में काम करने वालों के फोटो छपते हैं। चंूकि हम अंगरेजी में सोच कर हिंदी में लिखते हैं, इसलिए अनुवाद की जड़ हो गई हिंदी हमें समझ भी कम ही आती है। हमारे गहन चिंतन की भाषा मातृभाषा के अलावा कोई और नहीं हो सकती, मगर हमारा गहन चिंतन बंद हो चुका है, उसे जंग लग गया है और समस्त प्रादेशिक भाषाओं के समृद्ध साहित्य से हम वंचित हो रहे हैं। मोबाइल, फेसबुक, ट्विटर पर जो भाषा प्रयोग हो रही है, उनमें भाषा कहीं है ही नहीं, सांकेतिक चिह्न अधिक लगते हैं। इस रफ्तार से भाषा के लुप्त हो जाने में अधिक समय नहीं लगेगा। वेबसाइटों के माध्यम से हम अपनी प्रादेशिक भाषाओं को खूब चमका सकते हैं- बस इछाशक्ति की जरूरत है। हम बार-बार इस बात की दुहाई देते हैं कि अगर हम अंगरेजी में काम नहीं करेंगे तो पिछड़ जाएंगे, क्योंकि अद्यतन सूचनाएं और वैज्ञानिक साहित्य हमें हिंदी भाषा में नहीं मिलता। हिंदी को समृद्ध करने की कोशिश में अंगरेजी का विरोध कहां है। होना यह चाहिए कि दूसरी भाषा के साहित्य से ग्राह्य को ग्रहण कर अपनी भाषा में लाएं। विदेशियों ने ऐसा किया है। हमारे ग्रंथों का गहन अध्ययन कर गुह्य रहस्य लेकर दूसरे देश विज्ञान में आगे बढ़े हैं। हम आज भी समझ नहीं पा रहे कि हमारे पास कितनी अमूल्य जानकारियां हैं, पर हम अपनी भाषा ही नहीं जानते। संविधान में संघ की भाषा हिंदी रखते समय यह स्वप्न में भी नहीं सोचा गया होगा कि एक दिन देश में हर काम करने के बाद खानापूरी के लिए अनुवाद होगा और हिंदी अधिकारियों की जमात पैदा हो जाएगी। यह एक पद हो जाएगा, जो देश भर को हिंदी अनुवाद देगा। यह एक अक्षुण्ण परंपरा बनती दिखाई दे रही है।
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