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Oct 4, 2015

=> जब सपनों को जीते हैं...

  • अशोक रावत
उम्मीदों के साये में ख़तरों को जीते हैं,
अच्छा तो लगता है जब सपनों को जीते हैं.
ऐसे ही मुझमें जीता है मुद्दत से कोई,
जैसे आँगन तुलसी के गमलों को जीते हैं .
याद वही आते हैं मंजि़ल पालेने के बाद,
मंजि़ल से पहले हम जिन रस्तों को जीते हैं.
हम भी ऐसे ही जीते है तेरे होने को,
गंगा के तट ज्यों पावन लहरों को जीते हैं.
आसमान में उडऩे की ख़्वाहिश में लगता है,
रिश्तों के बंधन में हम पिंजरों को जीते हैं.
वो ही शायर जि़ंदा रह जाते हैं दुनिया में,
हर आँसू में जो अपनी गज़़लों को जीते हैं.
अपनी आँखों में जीते हैं हम तेरे सपने,
चहरे पर अपने तेरी नजऱों को जीते हैं.
कितने अनजाने से हो जाते हैं वो एक दिन,
हर पल धडक़न में हम जिन चेहरों को जीते हैं.

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